कुछ अलग सा लगने लगा हु खुद को आजकल,
जाने ऐसा क्या है जो खुद मन को भाता नहीं।
माना कुछ हुआ है,
पर क्या हुआ है, ये भी तो ज़हन में आता नहीं।।
कभी खोजते है खुद में खुद को कही,
तो कभी खुद की उलझनों में खो जाते है।
कभी तो ये हद कर देती है पलके भी,
नींदों के दरमियाँ बिन ख्वाबो के सो जाती है।।
कभी सोचता हु युही बैठ कर वक़्त की मुंडेर पर,
आखिर क्या हुआ है मन को,
जो आज खुद की बातो से ही परेशान हो उठा है।
क्या सही कहता है ये,
की जो मै दीखता हु वो मै नहीं।
और जो मै हु,
वो दूर कहीं मन के कोने में सहमा सा,
सकुचाया सा बैठा है।।
चलो मान ली मन की बातें अब,
माना मै ये नहीं,
पर ये जो परिवर्तन है,
ये भी तो मन का ही खेल है।
जो मुझे इसने मुझी से दूर कर दिया,
आखिर जहा से ये कैसा मेल है।
अब मन तू ही बता,
आखिर ये तेरा कैसा खेल है।।
अंत में बहुत विचलित होते हुए मन,
इन बातो को फिर वक़्त पर छोड़ देता है।
क्या ये सही है,
की मै बदल गया हु।
पता नहीं ख्वाब कब तक टिकेंगे इन आँखों में अब,
देखना है आखिर मन कब तक ख्वाब सजाता है।।

Vinay Singh

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