बचपन
During the time of war in Syria (begining since late 2014′ ) , thousands of children were killed or forced to immigrate under dangerous circumstances where in most cases, they couldn’t make it to live .There entire childhood of cheerfulness and curiosity is taken away from them. So this is a poem describing those happenings . The title of the poem is – बचपन (meaning ‘childhood’).
बचपन ,
ज़िन्दगी के हर दिन को ख़्वाब की तरह जीना है बचपन,
और उस ख़्वाब को नायाब बना दे , यही सीखना है बचपन ।
लेकिन उन्ही मासूमों का रक्त से सना चेहरा देखकर दिल रुक सा जाता है ,
उनकी चीख़ पुकार सुनकर , इंसान के नाते , सिर शर्म से झुक जाता है ।
क्या मासूम होना कसूर है उनका ,
या जीने की भीख माँगना नाजायज़ फितूर है उनका ।
ये किस वर्चस्व की लड़ाई है यह मेरी समझ से परेह है ,
पर क्या इस वर्चस्व का होना इंसानियत पर भी अजेय है ।
इस खेल में किसकी जीत ,किसकी हार यह कहना फ़िज़ूल है ।
मज़हब की आड़ में जोशीला रक्त बहाना , ये किस दीन का उसूल है ।
अरे सुना था बचपन में की , “धर्म ही तेरी आत्मा है “।
तो उसी आत्मा का गाला घोंटना , ये कैसा सुकून है ?
खून के फव्वारे में होली खेलना किस जिहाद ने सिखाया ?
अरे भई , उसी जिहाद ने तो सदियों तक आपसी भाईचारे को बढ़ाया ।
कहने वाले तोह यह भी कहते है ,”मर तो वो रहे है ना , तो क्यों रोता है तू “?
क्योंकि इंसान को तड़पता देख हाथ आगे बढ़ाना , यही इंसानियत ने दिखाया ।
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